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بچپن کی سماعتیں

17 اگست، 2016
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نصیر احمد ناصر

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بچپن کی سماعتیں

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شکر دوپہروں میں
کوئلوں سے دیواروں پر
کھڑکیوں اور دروازوں کی شکلیں بناتے ہوئے
حملہ آور گالیوں کی طرح
اچانک امنڈ آنے والا
گلیوں کا سناٹا ہو
یا دالانوں میں گھسٹتی
ننگ دھڑنگ طفلانہ خاموشی ۔۔۔۔۔۔
نیم تاریک پساروں میں
دکھائی نہ دینے والے جسموں کی
دبی دبی ہنسی آلود باتیں ہوں
یا رسوئیوں اور برآمدوں میں چلتی پھرتی
نئی نئی سہاگنوں کی ذائقے دار سرگوشیاں ۔۔۔۔۔
اُڑتے ہوئے پرندوں کی
گھونسلوں میں رہ جانے والی پروازیں ہوں
یا آسمان کی گونجیلی نیلاہٹوں میں
بے آواز پروں کی
ہلکورے لیتی، لہریے بناتی
پھڑپھراہٹیں ۔۔۔۔۔
گِل خوروں کے رینگنے کی سرسراہٹ ہو
یا بارش میں نہاتے ہوئے
قدموں کی شپ شپ ۔۔۔۔۔۔
درختوں کی شاخیں کٹتے ہوئے
پتوں اور تتلیوں کی سسکیاں ہوں
یا جنگلوں، راستوں اور پہاڑی دروں سے گزرتی ہوئی
ہوا کی کلکاریاں ۔۔۔۔۔
سرحدوں کے آر پار بنے
اونچے بنکروں سے برستی تڑ تڑ گولیاں ہوں
یا نشیبی رات کا سینہ چیرتی
پہرے داروں کی سیٹیاں ۔۔۔۔۔۔۔
بچپن کی سنی ہوئی آوازیں
عمر بھر سنائی دیتی ہیں!

Image: Dilip Oinam
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One Response

  1. ‘Bachpan ki Sama’aten’ poem by Naseer Ahmed Nasir
    Hindi Translation- Shameem Zehra
    بچپن کی سماعتیں
    बचपन की सुनी हुई आवाज़ें
    नसीर अहमद नासिर

    शक्कर दोपहरों में
    कोयलों से दीवारों पर
    खिड़कियों और दरवाज़ों की शकलें बनाते हुए
    हमला करती गालियों की तरह
    अचानक उमड़ आने वाला
    गलियों का सन्नाटा हो
    या दालान में घिसटती नंग धड़ंग शैशव जैसी ख़ामोशी …..

    हलके अँधेरे पसारों में
    दिखाई न देने वाले जिस्मों की
    दबी दबी हँसी मिली बातें हों
    या रसोइयों और बरामदों में चलती फिरती
    नई नई सुहागनों की ज़ायक़ेदार सरगोशियाँ (फुसफुसाहटें)….

    उड़ते हुए परिन्दों की
    घोंसलों में रह जाने वाली उड़ानें हों
    या आसमान की गुंजीली नीलाहटों में
    बेआवाज़ परों की
    हिलकोरे लेती, लहरें बनाती फड़फड़ाहटें……

    गुलख़ोरों के रेंगने की सरसराहट हो
    या बारिश में नहाते हुए,
    क़दमों की शप शप ……

    वृक्षों की शाखाएं कटते हुए
    पत्तों और तितलियों की सिसकियाँ हों
    या जंगलों, रास्तों और पहाड़ी दर्रों से गुज़रती हुई
    हवा की किलकारियां…..

    सरहदों के आरपार बने बंकरों से
    बरसती तड़तड़ गोलियाँ हों
    या मध्य रात्रि का सीना चीरती
    पहरेदारों की सीटियाँ…..

    बचपन की सुनी हुई आवाज़ें
    उम्र भर सुनाई देती हैं !!

    हिन्दी अनुवाद- शमीम ज़हरा

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  1. ‘Bachpan ki Sama’aten’ poem by Naseer Ahmed Nasir
    Hindi Translation- Shameem Zehra
    بچپن کی سماعتیں
    बचपन की सुनी हुई आवाज़ें
    नसीर अहमद नासिर

    शक्कर दोपहरों में
    कोयलों से दीवारों पर
    खिड़कियों और दरवाज़ों की शकलें बनाते हुए
    हमला करती गालियों की तरह
    अचानक उमड़ आने वाला
    गलियों का सन्नाटा हो
    या दालान में घिसटती नंग धड़ंग शैशव जैसी ख़ामोशी …..

    हलके अँधेरे पसारों में
    दिखाई न देने वाले जिस्मों की
    दबी दबी हँसी मिली बातें हों
    या रसोइयों और बरामदों में चलती फिरती
    नई नई सुहागनों की ज़ायक़ेदार सरगोशियाँ (फुसफुसाहटें)….

    उड़ते हुए परिन्दों की
    घोंसलों में रह जाने वाली उड़ानें हों
    या आसमान की गुंजीली नीलाहटों में
    बेआवाज़ परों की
    हिलकोरे लेती, लहरें बनाती फड़फड़ाहटें……

    गुलख़ोरों के रेंगने की सरसराहट हो
    या बारिश में नहाते हुए,
    क़दमों की शप शप ……

    वृक्षों की शाखाएं कटते हुए
    पत्तों और तितलियों की सिसकियाँ हों
    या जंगलों, रास्तों और पहाड़ी दर्रों से गुज़रती हुई
    हवा की किलकारियां…..

    सरहदों के आरपार बने बंकरों से
    बरसती तड़तड़ गोलियाँ हों
    या मध्य रात्रि का सीना चीरती
    पहरेदारों की सीटियाँ…..

    बचपन की सुनी हुई आवाज़ें
    उम्र भर सुनाई देती हैं !!

    हिन्दी अनुवाद- शमीम ज़हरा

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